Articles by "Gustaakh Najar"
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बुंदेलखंड अंचल में  स्वास्थ्य विभाग और चिकित्सकों के नैतिक दायित्वों और कामकाज से जुड़े दो ऐसे मामले सामने आये हैं जो ये दर्शाते हैं के डॉक्टर असली हों या नकली, डिग्री धारी हों या बगैर डिग्री वाले दोनों ही आम जनता की सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं एक और मरीजों का  विश्वास   छलने में लगे हैं 

वहीं दूसरी और सरकार को बेफकूफ बनाकर अपने नौकरी के समय जिस संसथान में पदस्थ हैं वहां से गायब रहकर  निजी अस्पतालों में सेवाएं देने में लगे हैं  और सरकार से मुफ्त की तनख्वाह लेते हैं । एक तरह के मामले सागर में बगैर डिग्री धारी कथित डॉक्टरों के क्लिनिक सी गए हैं वहीं  छतरपुर में एक अस्थिरोग विशेषज्ञ को नौकरी के समय  निजी अस्पताल में सेवाएं देते पकडे जाने पर निलंबित कर दिया गया है 

चिकित्सा क्षेत्र की यह समस्या जितनी दिखती है उससे कहीं ज्यादा गहरी और गंभीर है। यह बात भी आमजनता, प्रशासन और सरकारों से छुपी नहीं है कि किस किस  मेडिकल कॉलेज में  पदस्थ चिकित्सकों ने कॉलेज के सामने ही अपने बड़े-बड़े अस्पताल  खोले   रखे हैं और आश्चर्य जनक तौर पर वह दोनों ही संस्थाओं में हमेशा उपस्थित पाए जाते हैं कहीं साक्षात् तो कहीं कागजों  में । कमोबेश यह समस्या किसी एक क्षेत्र की नहीं पूरे प्रदेश की है । इस समस्या से निपटने के लिए सरकारों को बड़े पैमाने पर कदम उठाने होगें जिसके लिए मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति और नैतिक इरादे की जरूरत होगी 

सर्वोच्च न्यायालय ने जनवरी 2013  के  एक आदेश जारी कर धार्मिक संरचनाओं के साथ-साथ, अदालत ने मूर्तियों की स्थापना पर भी फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और न्यायमूर्ति एस जे मुखोपाध्याय की पीठ ने आदेश दिया, "अब से, राज्य सार्वजनिक सड़कों, फुटपाथों और फुटपाथों तथा अन्य सार्वजनिक उपयोगिता वाले स्थानों पर कोई भी मूर्ति स्थापित करने या कोई संरचना बनाने की अनुमति नहीं देंगे।"

इसी आदेश को नजीर मानकर मप्र उच्च-न्यायालय  ने भी मार्च 2022  के अपने एक आदेश में भोपाल नगर निगम को इस आदेश का उल्लंघन करने पर जुर्माना लगाया था और भोपाल में कांग्रेस के नेता अर्जुन सिंह व रायसेन में   आदिवासी योद्धा महारानी अवन्ती बाई की सार्वजनिक यातायात में बाधक  मूर्ती को हटाने का आदेश भी दिया था

इतना सब कुछ होने के बाद भी नगरीय निकाय मुख्य सड़कों के किनारे, चौराहों और सार्वजनिक उपयोगिता वाले स्थानों पर प्रतिमाएं स्थापित  करने के फैसले ले रहे हैं और शासन से अनुमति मांगने के लिए पत्र लिखे जा रहे हैं । क्या इन्हें अदालतों की भाषा और मंशा समझ में नहीं आती  है या ये खुद को इन सब से ऊपर मानते हैं । 

कम से कम सागर नगर निगम की परिषद् के ताज़ा फैसलों से तो कुछ  ऐसा ही नजर आता है?

Sagar Watch News

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नेताओं की लच्छेदार बातों के साथ 68 वीं राज्य स्तरीय खेल प्रतियोगिता का आज सागर के नगर निगम के स्टेडियम में शुभारम्भ हुआ। राजनीति के खिलाडियों ने स्कूल के बच्चों को खूब ज्ञान पेला।इस राज्य स्तरीय आयोजन में आयोजक इस मौके पर बच्चों को खेल से जुडी कोई अच्छी सीख देने वाले किसी खिलाडियों को नहीं बुला पाए 

सामान्यतः  शासकीय आयोजनों में  राजनेताओं की प्रत्यक्ष  भूमिका अपेक्षित नहीं होती है लेकिन कहते हैं न "जब सैंयाँ कोतवाल तो डर काहे का" इस खेल आयोजन में भी  नेताओं ने खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिए और बड़ी -बड़ी बातें दीं।  सत्ताधारी पार्टी के जिला स्तर के पदाधिकारी ने  देश के होनहार खिलाडियों को उन सारी बातों को मानने की सीख दी जिनका राजनीति के खेल में खुलेआम माखौल  उड़ाया जाता है। 

इन साहब को शायद पहले से ही पता चल गया होगा खेल प्रतियोगिता में शामिल होने वाले बच्चों को अपेक्षित खेल सुविधाओं और सामग्री के आभाव का सामना करना पड़ सकता है इसलिए उन्होंने पहले से ही बच्चों को नसीहत दे दी " जो खिलाडी  अभावों में खेलता है वह ही आगे बढ़ता है, अपना नाम रोशन करता है और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जाता है।" अगर कोई इस बात का  मतलब यह भी निकालने लगे कि जो सुविधाओं के अभाव को मुद्दा बनाएगा उसके आगे बढ़ने की सम्भावना कम हो जाती है, तो भी कोई अचरज की  बात नहीं  होगी ।   

इसी क्रम में एक जनप्रतिनिधि ने तो खेल प्रतियोगिता में शामिल बच्चों से ज्यादा आयोजकों का ख्याल रखते हुए एक गजब बात कह दी। उन्होंने खेल आयोजन की अनअपेक्षित बदइंतजामी को लेकर पहले से ही आयोजकों का बचाव करते हुए बच्चों को सीख दे डाली । 

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उन्होंने कहा  कि वे (बच्चे) घर से बाहर खेलने आये हैं इसलिए अगर कोई बदइंतजामी सामने आये तो उसको तूल न देना।  लेकिन उन्हें यह नजर नहीं आया कि आयोजक तो घर के ही हैं और अपने घर में ही आयोजन करा रहे हैं उन्हें पूरी तरह चाक चौबंद इंतजाम करना चाहिए, उन्हें कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखना चाहिए

हालांकि अपने उद्बोधन के दौरान  जाने-अनजाने में यह भी खुलासा करते नजर आये कि इन खेलों के लिए प्रदेश सरकार ने अतिरिक्त बजट मुहैया कराया है। 

शहर की प्रथम नागरिक ने भी खिलाडियों को बताया कि खेलने से समय के प्रबंधन, अनुशासन और देशभक्ति की भावना आती है।   

इसी सिलसिले में जिला शिक्षा अधिकारी भी भाषण देने में कहीं से कमजोर नजर नहीं आये।  उन्होंने भी अयोजन के इन्तेजाम बेहतरीन होने के खूब कसीदे काढ़े। उन्होंने बताया की आयोजन कारगर आयोजन के लिए खूबसारी समितियां गठित की गयीं हैं।  उनमें  दर्जनों प्राचार्यों, शिक्षकों, खिलाडियों और खेल अधिकारीयों को जिम्मेदारी सौपी गयी है। 

प्रतियोगिता के नोडल अधिकारी ने बताया कि प्रतियोगिता में 580 छात्र-छात्राएं प्रतियोगी के रूप में शामिल होंगे एवं 80 से अधिक अधिकारी कर्मचारी शामिल हुए हैं। प्रदेश के 10 संभागों से खिलाड़ी सागर  आये हैं। छात्राओं को "शादी घरों" और छात्रों को  स्कूलों में ठहराया गया है


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एक कार्यक्रम में शिक्षा विभाग के एक आला अधिकारी ने शिक्षकों को सन्देश दिया कि "वे बढ़ा लक्ष्य बना कर, उसे हासिल करने का प्रयास करें।"  सलाह बहुत अच्छी लगती है, लेकिन अगर हाल ही के घटनाक्रम को देखा जाये तो इस नसीहत की सबसे पहले और सबसे ज्यादा जरूरत इन्हीं साहबों को लगती है।  

कहा जाता है शिक्षकों को सबसे ज्यादा तकलीफ रोजाना कक्षाओं में जाने से हो रही है और बच्चों को पढ़ाने  से उनकी तकलीफ असहनीय हो जाती है। उनका पढ़ाने में मन ही नहीं लगता है। इस मुश्किल का इलाज कुछ शिक्षकों ने अपने स्थान पर भाड़े के शिक्षक रखकर कर लिया है।

वहीं कुछ शिक्षकों ने  जोड़तोड़ कर ऐसे स्कूलों में नियुक्ति करा ली है जहां विद्यार्थियों की संख्या से ज्यादा मास्साबों की संख्या हो गयी है। पता चलता है कि ऐसे कई स्कूलों में एक ही विषय के शिक्षक जरूरत से ज्यादा हो गए हैं तो किसी एक विषय के लिए एक शिक्षक भी मौजूद नहीं  है। अंग्रेजी पढ़ाने वाले शिक्षाओं की कमी तो जगजाहिर ही है

शिक्षा विभाग जिन शिक्षकों के चलते अतिशेष शिक्षकों की समस्या से जूझ रहा है । उनमें से अधिकाँश वो लोग हैं जो महज एक सरकारी नौकरी की चाहत में शिक्षक बन गए। ऐसे शिक्षकों का खास मकसद बच्चों को अच्छी शिक्षा देना नहीं बल्कि खुद के लिए अधिक से अधिक सुविधाएँ बटोरना होता है और इसी के चलते ये कभी ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से बचने के लिए शहर में ही पदस्थापना पाने के जुगत में लगे रहते हैं 

जो शिक्षक ज्यादा ही तिकड़मी हैं उन्होंने तो खुद को प्रतिनियुक्तियों की आड़ में पदस्थापना हासिल कर जनप्रतिनिधियों के कार्यालयों को ही अपना स्थाई घर-ऑफिस बना लिया है। इस फन में माहिर कुछ मास्साबों ने तो दशकों से स्कूलों का मुंह तक नहीं देखा है। 

कई शिक्षक तो यह भी भूल गए है की वे किस विषय को पढ़ाने  के लिए भर्ती हुए थे। बस अपने आकाओं की जी हुजूरी में लोट-पोट हो रहे हैं। हाँ यहाँ रहकर उन्होंने खुद को अन्य विभाग के अधिकारीयों को अपने आकाओं के आड़ में रोआब दिखाकर लोगों के काम बनाने-बिगाड़ने के खेल में पारंगत जरूर कर लिया है

ऐसे शिक्षकों की बिरादरी लगातार बढ़ती जा रही है और ताकतवर भी होती जा रही है। इतना ही अब तो इसी बिरादरी के ही के ही कुछ अति होशियार सेवादार और तिकड़म बाज़ नुमाइंदे अब जिला स्तर की कमान भी सँभालने लगे हैं। जिससे विभाग में व्यवस्था बनाने का काम बेहद आला-दर्जे? का होता जा रहा है

बताया जा रह है शिक्षक कक्षाओं में कैसा पढ़ाते हैं ? बच्चों को उनकी बातें कितनी समझ में आतीं हैं। इसके मूल्यांकन की  अगर कोई व्यवस्था है भी तो वह नदारद ही नजर आ रही है । स्कूलों के इम्तिहानों के नतीजे  बहुत हद तक शिक्षकों की सक्रियता की कसौटी मानी जा सकती है। 

लेकिन यह भी माना जाने लगा है कि  राज्य और केंद्र स्तर के श्रेष्ठ शिक्षक होने के "सम्मान और पुरस्कार"  हासिल करने में पढ़ाने का हुनर अपने अहमियत खोता जा रहा है। चर्चाओं तो ऐसी भी होती रहतीं हैं के ऐसे तमगे हासिल करने वालों में ज्यादातर तो वो लोग होते हैं जो कक्षाओं की देहरी तक पार नहीं करते हैं

ऐसे विध्न संतोषी शिक्षकों की  बिरादरी के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद भी अगर शिक्षा विभाग में काम हो रहा है तो इस बात का श्रेय निसंदेह उन शिक्षकों को जाता है जो पूरे समर्पण के साथ बच्चों के भविष्य निर्माण में लगे हुए हैं। ये वही शिक्षक हैं जो अच्छी शिक्षक के लिए दिए जाने वाले सम्मान और पुरस्कारों के सच्चे हकदार होते हैं और इन शिक्षकों की अच्छाइयां भी कभी-कभी ही मीडिया के सुर्ख़ियों में आ पाती हैं

अब शिक्षको की इस बिरादरी की मनमानियों से निपटने और उन्हें रास्ते पर लाने की कवायद को भला कौन बड़ा लक्ष्य नहीं मानेगा? इस बड़े लक्ष्य को हासिल करने में कितने मशक्कत करनी पड़ेगी इसका भी मोटा-मोटा अंदाजा लोग सहज ही लगा सकते हैं। 

तो अच्छा होगा विभाग के आला अधिकार खुद के लिए इस बड़े लक्ष्य को साधने का जिम्मा लें लें और इस चुनौतीपूर्ण काम को पूरा कर मिसाल पेश करें । तब उनके महकमे के लोग उनकी नसीहत को भली-भाँती समझ  जायेंगे । वर्ना लोग तो यह ही कहेंगे" पर उपदेश कुशल बहुतेरे"|